May 19, 2024

वट सावित्री व्रत कथा | Vat Savitri Vrat Katha

वट सावित्री व्रत :

वट सावित्री का व्रत सुहागन स्त्रियों का प्रमुख त्यौहार होता है। यह व्रत प्र्त्येक वर्ष ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को किया जाने वाला व्रत है, इस व्रत में बरगद के वृक्ष और साथ ही सत्यवान – सावित्री और यमराज जी की पूजा करने की विधि होती है। स्त्रियाँ यह व्रत और पूजा अपने पति की दीर्घायु, स्वस्थ जीवन और अच्छी तरक्की के लिए करती है। सावित्री ने भी इसी व्रत के माध्यम से अपने पति सत्यवान को धर्मराज से वापस छीन लिया था।

व्रत की विधि व विधान :

शास्त्रों के अनुसार, वट वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी निवास माना जाता है, वट वृक्ष को बरगद का पेड़ व् देव वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है, इस वृक्ष के जड़ में ब्रह्मा मध्य में विष्णु और अग्रभाग में शिव जी का वास होता है और देवी सावित्री का निवास भी इसमें माना जाता है। इस वृक्ष के निचे ही देवी सावित्री ने अपने मृत पति को पुन: जीवित किया था तब से इसको ‘वट सावित्री’ वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है।

वट सावित्री व्रत के दिन स्त्रियाँ को केशों सहित स्नान करना चाहिए। तत्पचात बरगद के निचे एक स्थान पर मिट्टी या रेत से ब्रह्मा जी और सावित्री को स्थापित करे और ऐसे ही दूसरे स्थान पर सत्यवान और सावित्री को स्थापित करके रखना चाहिए। फिर ब्रह्मा और सावित्री, सत्यवान और सावित्री का पूजन करे तथा वृक्ष को जल अर्पण करे।

पूजा के लिए गंगा जल, मिट्टी का दीपक, अक्षत, फूल माला, रोली, कलावा, कच्चा सूत, भीगे चने, गुड़ से पूजा अर्चना की जाती है। वट वृक्ष को जल अर्पण करने के बाद १०८ बार कच्चे सूत से लपेटते हुए वृक्ष की परिक्रमा करनी चाहिए। इसके बाद वट के पत्तों से ७ गहने बनाकर उनको पहनकर व् हाथ में काले चने लेकर सावित्री की कथा सुननी चाहिए। कथा सुनने के बाद भीगे चनो का बायना निकालकर उसमे रूपये रख कर अपनी सास को देवे और उनका आशीर्वाद प्राप्त करे। इसमें त्रयोदशी से तीन दिन तक उपवास रखते है।

व्रत की कथा :

मद्र देश में एक राजा थे, जिनका नाम अश्वपति था। मद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान नहीं थी, उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियां दीं। अठारह वर्षों तक वह ऐसा करते रहे। इसके बाद सावित्री देवी ने प्रकट होकर वर दिया कि हे राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी। सावित्री देवी की कृपा से जन्म लेने के कारण उस कन्या का नाम सावित्री रखा गया। कन्या जब बड़ी हुई तब उसके योग्य वर न मिल पाने से राजा अत्यंत दुखी हुआ और उन्होंने सावित्री को स्वयं वर चुनने की अनुमति दे दी। सावित्री ने सत्यवान की कीर्ति सुनकर मन से उसे अपना पति मान लिया था। राजा को जब यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने भी हाँ भरदी। जब यह बात ऋषिराज नारद जी को पता चली तो वे राजा अश्वपति से जाकर बोले – हे राजन ! सत्यवान गुणसंपन्न व् धर्मात्मा अवश्य है परन्तु वह अल्पायु भी हैं केवल एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु निच्चित हैं। ऋषिराज नारद की बात सुनकर राजा उदास हो गया। विचार करके बात उसने अपनी पुत्री को कह सुनाई। पर सावित्री नहीं मानी और अपने पिता से कहा कि पिताजी, आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही चयन करती हैं, राजा भी एक बार ही आज्ञा देता है और पंडित एक बार ही प्रतिज्ञा करता हैं और कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। सावित्री हठ करने लगीं और बोलीं मैं सत्यवान से ही विवाह करूंगी। यह सभी बात सुनकर राजा ने विवाह करा दिया। सावित्री के सास – ससुर नेत्रहीन थे, सावित्री ने ससुराल पहुँचते ही उनकी सेवा करनी शुरू कर दी।  सावित्री ने नारद मुनि जी से पहले ही सत्यवान की मृत्यु का समय मालूम कर लिया था इसलिए जैसे-जैसे वह दिन करीब आने लगा सावित्री अधीर होने लगीं। उसने तीन दिन पहले से ही उपवास शुरू कर दिया था।

सावित्री ने नारद मुनि द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया। और मृत्यु के दिन भी वह हर दिन की तरह सत्यवान उस दिन भी लकड़ी काटने जंगल जा रहा था, सावित्री भी अपने सास ससुर की आज्ञा लेकर सत्यवान के साथ जंगल को गई। जंगल में पहुंचकर सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक पेड़ पर चढ़ा, तो उसको सिर में तेज दर्द होने लगा तो वह निचे उतरकर पेड़ की छाव में लेट गया, वहा एक सर्प ने उसको काट लिया। सावित्री सत्यवान को लेकर अपनी गोद में रोने लगीं। इतने में वहाँ से शिव जी व् माता पार्वती निकले। सावित्री ने उनके पैर पकड़ कर कहा की आप मेरे पति को जीवित कर दो। तब शिव जी ने कहा आज बड़ अमावस् है तुम बड़ की पूजा कर उससे तेरा पति जीवित हो जायेगा और बड़ के पत्तो के गहने पहन, वो हीरे मोती के हो जाएंगे। तब सावित्री ने बड़ के पेड़ की पूजा की तभी यमराज वहाँ आ गये और अपने साथ सत्यवान को ले जाने लगे। सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं, यमराज ने सावित्री को समझाने की कोशिश की, उसको विधि का विधान सुनाया। लेकिन सावित्री नहीं मानी और सावित्री की निष्ठा और पतिप्रेम को देख कर यमराज ने सावित्री से कहा कि -“हे देवी, तुम धन्य हो, तुम मुझसे वरदान मांगो।

सावित्री ने कहा कि मेरे सास-ससुर वनवासी और अंधे हैं, उन्हें आप ज्योति प्रदान करें। यमराज ने तथास्तु कहा कहा और सावित्री से लौट जाने को कहा”। यमराज की बात सुनकर सावित्री ने कहा – महाराज जहाँ पति वही पत्नी, यह कहते हुए पीछे – पीछे चल दी। यह देखकर यमराज ने और वर माँगने को कहा, सावित्री बोलीं- “हमारे सास ससुर का राज्य छिन गया है वह उन्हें पुन: प्राप्त हो”। यमराज ने यह वर देकर सावित्री को लौट जाने को कहा परन्तु सावित्री ने पीछा नहीं छोड़ा तब यमराज ने तीसरा वरदान मांगने को कहा तो सावित्री ने शत् पुत्रवती होने का वरदान माँग लिया। यमराज जी ने बोला “तथास्तु”। सावित्री फिर भी पीछे पीछे चलती रही तो यमराज बोले अब क्या चाहती हो। सावित्री बोली – मुझे पुत्रवती होने का वचन देकर आप मेरे पति को लिए जा रहे है तब यमराज को अपनी भूल ज्ञात हुई तथा वचन रख़ने के लिए सत्यवान के प्राण वापस कर दिए।

सावित्री उसी बड़ के पेड़ के पास आई जहां उसके पति का मृत शरीर पड़ा था। उसके जीवन का संचार हुआ तथा सत्यवान उठकर बैठ गया और घर आकर देखा तो उसके माता पिता को दिव्य ज्योति और राजवैभवयुक्त प्राप्त हुआ।

इसके बाद सत्यवान – सावित्री ने सौ पुत्रों के साथ चिरकाल तक अखंड साभोग्य वराज्य सुख को प्राप्त किया।  जिस तरह सावित्री को पुत्र सुख व् अखंड सौभाग्य दिया भगवान् वैसा सभी को दें। जब से अटल सुहाग की कामना के लिए स्त्रियां वट सावित्री का व्रत करती है।

इस प्रकार अटल सुहाग की कामना करते हुए वट वृक्ष की पूजा अर्चना और निर्जला व्रत करना सुहागिन स्त्रियों के लिए अत्यंत ही फलदायी होता है।

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