May 19, 2024

गण्ड मूल नक्षत्र | Gand Mool Nakshatra

गण्ड नक्षत्र के सम्बन्ध में शास्त्रकारों का मत

गण्ड नक्षत्र – अश्विनी, मघा, ज्येष्ठा, मूल, आश्लेषा व् रेवती होते हैं।

कुछ दैवज्ञों ने पूर्वाषाढ़ा, पुष्य, हस्त, उत्तरा फाल्गुनी व् चित्रा नक्षत्रों को भी गण्ड नक्षत्रों की भांति अनिष्ट कारक बताया है।

सबसे पहले गण्डवास देखना चाहिए कि गण्ड का वास जन्म काल में कहा है। मुहूर्तचिन्तामणि के अनुसार –

“स्वर्गेसुशुचि प्रौष्ठपदेषमाघे भूमौ नभ: कार्तिकचैत्रपोषे।
मूल ह्राध स्तास्तु तपस्यमार्गवैशाख – शुक्रेष्वशुभ च तत्र॥”

अर्थात आषाढ़, भाद्रपद अश्विनी व् माघ मास में गण्ड का वास स्वर्ग में, श्रावण, कार्तिक चैत्र व् पौष मास में गण्डवास मृत्युलोक अथवा प्रृथ्वी पर तथा ज्येष्ठ, वैशाख, मार्गशीर्ष व् फाल्गुन मास में पाताल अर्थात नरक में गण्ड का वास होता है। जन्म काल में मूल का जिस लोक में वास होता है उसी लोक का अनिष्ट करता है अतः मृत्युलोक अर्थात धरातल पर वास होने की स्तिथि में ही अनिष्ट करता है।

आश्लेषा मघा – ज्येष्ठा – मूल रेवती – अश्विनी नक्षत्रों में गण्ड

“मूलामघाश्विचरणे प्रथमे पितुशच, पोषणे द्रंयोशच फणिनस्तु चतुर्थपादे।
मातुः पितुःस्ववपुषोाSपि करोति नाशं, जातो यथा निशि दिनेSप्यथ सनध्ययोशच॥”

मूला, मघा और अशिवनी के प्रथम चरण का जातक पिता के लिए, रेवती के चतुर्थ चरण रात्रि का जातक माता के लिए, ज्येष्ठा के चतुर्थ चरण दिन का जातक पिता के लिए तथा आश्लेषा के चतुर्थ चरण सार्यकाल मे जन्म हो तो स्वय के लिए जातक अरिष्ट कारक होता है। इसके साथ हि दैवज्ञ वैद्यनाथ ने यह भी कहा है की :-

“दिवा जातास्तु पितरं रात्रिजो जननीं तथा ।
आत्मानं संध्ययोहन्ति नास्ति गण्डे विपयृय: ॥”

अर्थात दिन में जन्मा गण्ड का जातक पिता के लिए, रात्रि का गण्ड जातक माता के लिए तथा प्रातः सायं  के संधि काल के गण्ड का जातक स्वयं के लिए अनिष्ट कारक होता है। फिर दैवज्ञ वैद्यनाथ कहते है की :-

“ऋक्षस्यान्ते भवेद्रात्रावादौ यदि दिने तथा ।
संध्यासु ऋक्षसंधौ तु तदेतदगण्डलक्षणम ॥”

अर्थात रेवती, आशलेषा व् ज्येष्ठा के अंतिम चरण में रात्रि का जन्म हो तथा अशिवनी, मघा व् मूल के प्रथम चरण दिवा का जन्म हो तो गण्ड दोष होता है।

गण्ड ज्येष्ठा नक्षत्र जन्म फल एवं गण्डमान फल

ज्येष्ठा के पहले दशांश में नानी, दूसरे दशांश में नाना, तीसरे दशांश में मामा, चौथे दशांश में माता, पांचवे दशांश में स्वंय, छठे दशांश में सगोत्री, सातवे दशांश में माता पिता के कुल में, आठवें दशांश में स्वकुल का वंशोच्छेद, नोवें दशांश में ससुर तथा दशवें में सभी का विनाशक होता है। यदि ज्येष्ठा नक्षत्र और मंगलवार हो तो ज्येष्ठ भाई तथा रविवार मूल नक्षत्र का जातक ससुर का नाश करता है।

( जन्म नक्षत्र ज्येष्ठा को १० से भाग देकर दशाश बनाये ) गण्डफल में ज्येष्ठ प्रथम चरण में ज्येष्ठ भाई, द्वितीय में बड़े से छोटे भाई, तृतीय में पिता तथा चतुर्थ में स्वयं के लिए विनाशक होता है।

मूल नक्षत्र गण्ड फल एवं गण्डमान

अर्थात मूल नक्षत्र के प्रथम चरण का जातक पिता, द्वितीय का माता, तृतीय का धननाशक तथा चतुर्थ चरण का जातक अत्यन्त सुखद योग में जन्म लेता है। ( जन्म नक्षत्र मूल को १५ से भाग देकर १५ भागों बांटे ) पहले में पिता, दूसरे में चाचा, तीसरे में बहन, चौथें में पितामह मह, पांचवें  में माता, छठे में मासी, सातवें में मामा, आठवे में चाची, नवें में सभी के लिए दशवें में पशु, ग्यारहवें में नौकरों के लिए, बारहवें में स्वयं, तेरहवें में ज्येष्ठ भाई, चौदहवें में बहन तथा पन्द्रहवें में नाना के लिए अरिष्ट कारक होता है।

आश्लेषा के गण्ड फल

अर्थात आश्लेषा के प्रथम चरण में गण्ड दोष नहीं है, द्वितीयय में धन के लिए, तृतीय में माता के लिए तथा चौथे में पिता के लिए गण्ड दोष है।

अभुक्त गण्ड

ज्येष्ठा के अंतिम प्रहर का आधा तथा मूल के प्रारम्भि आधा प्रहार की संधि, आश्लेषा के अंतिम आधा प्रहर व् मधा के प्रारम्भिक आधा प्रहर की संधि तथा रेवती के अंतिम आधा प्रहर व् अश्विनी के प्रारम्भिक आधा प्रहर की संधि गण्डान्त काल ( अभुक्त गण्ड ) कहलाता है। इसमें जन्मे जातक पुत्र , कन्या , पशुधन तथा नौकर सभी अपने तथा स्वामी कुल का विध्वंसक होता है। (आधा प्रहार बनाने का नियम :- गण्ड नक्षत्र के कुल घटी पल को को आठ से भाग देने पर एक प्रहार होता है तथा उसका आधा करने पर आधा प्रहर बनता है। ) ऐसा बृहस्पति का कहना है। वशिष्ट मुनि के अनुसार ज्येष्ठा के अंतिम एक घटी और मूल के प्रारम्भिक २ घटी मिलकर ये तीन घटी अशुक्त मूल कहलाता है।  नारद के अनुसार ज्येष्ठा की अंतिम चार घटी और मूल के प्रारम्भिक पहरी ये कुल आठ घटी अभुक्त कहलाता है। यथा :-

ज्येष्ठा की अंतिम पांचघटी और मूल की प्रारम्भिक आठ घटी मिलाकर अभुक्त होता है। इस जातक को ८ वर्ष पर्यन्त पिता को मुँह नहीं देखना चाहिए।

गण्ड नक्षत्रों की भांति ही कुछ अन्य नक्षत्रों के फल भी अनिष्ट कारक होते है। विशेषतया पूर्वाषाढा तथा पुष्य के चारों चरण अनिष्ट कारक है। इसके अलावा उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा आदि नक्षत्र है। जातक पारिजात में दैवज्ञ वैद्यनाथ कहते है कि :-

पूर्वाषाढ नक्षत्र धनु लग्न तथा पुष्यज कर्क लग्न का जातक हो तो पिता के लिए मृत्यु दायक होता है। अथवा पूर्वाषाढ व पुष्य के प्रथमचरण का जातक पिता के लिए, द्वितीय का माता के लिए तृतीय का अपने लिए तथा चौथें का मामा के लिए मृत्यु प्रद होता है।

उत्तराफाल्गुनी के प्रथम चरण, पुष्य के द्वितीय व तृतीय, हस्त के तृतीय, रेवती के चतुर्थ चरण में जन्मा बालक पिता के लिए तथा बालिका माता के लिए मृत्यु कारक होता है।

गण्ड भोग्यावधि

अशिवनी के प्रथम चरण का जातक १६ वर्ष में, मधा के प्रथम चरण का ८ वर्ष, ज्येष्ठा का एक वर्ष, चित्रा और मूल का ४ वर्ष, आश्लेषा का २ वर्ष, रेवती का १ वर्ष, उत्तरा फाल्गुनी का २ मास, पुष्य का तीन मास, पूर्वाषाढा का ९ वर्ष तथा हस्त का जन्मा जातक बारहवें वर्ष में पिता के लिए कष्ट या मृत्यु प्रद होता है। अभुक्त मूल में जन्मा जातक पिता के लिए जन्मते ही मृत्युदायक होता है। यदि जीवित रहें तो यह जातक वंशवृद्धिकारक, धन वाहनादिसुखो से सम्पंन होता है।

अन्य योग गण्ड

पिता के जन्म नक्षत्र और उससे दशवें नक्षत्र में जन्मा जातक तथा पिता की नवमांश राशि के लग्न में यदि बालक का जन्म होता है तो वह पिता के लिए अरिष्ट कारक होता है।

जन्म नक्षक्ष को प्रथम, जन्म नक्षत्र से दशवें नक्षत्र को कर्म, सोलवें नक्षत्र को संघातिक, अठारहवें को समुदाय, उन्निसवे को आधान, तेईसवें को वैनासिक, २५ वें को जाति, २६ वें को देश तथा २७ वें को अभिषेक माना गया है। यदि उपरोक्त नक्षत्र पापग्रह से युक्त होता है तो मृत्यु प्रद तथा शुभग्रह युस्त हो तो शुभ होता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *