॥ दोहा ॥
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल ।
दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल ॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज ।
करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज ॥
॥ चौपाई ॥
जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥१॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छबि छाजै ॥२॥
परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥३॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके । हिय माल मुक्तन मणि दमके ॥४॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥५॥
पिंगल, कृष्णों, छाया नन्दन । यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन ॥६॥
सौरी, मन्द, शनी, दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥७॥
जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं । रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं ॥८॥
पर्वतहू तृण होई निहारत । तृणहू को पर्वत करि डारत ॥९॥
राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो । कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥१०॥
बनहूँ में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चुराई ॥११॥
लखनहिं शक्ति विकल करिडारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥१२॥
रावण की गतिमति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥१३॥
दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥१४॥
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥१५॥
हार नौलखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवाय तोरी ॥१६॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो ॥१७॥
विनय राग दीपक महं कीन्हयों । तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों ॥१८॥
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरे डोम घर पानी ॥१९॥
तैसे नल पर दशा सिरानी । भूंजीमीन कूद गई पानी ॥२०॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई । पार्वती को सती कराई ॥२१॥
तनिक विलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥२२॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रौपदी होति उघारी ॥२३॥
कौरव के भी गति मति मारयो । युद्ध महाभारत करि डारयो ॥२४॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ॥२५॥
शेष देवलखि विनती लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ॥२६॥
वाहन प्रभु के सात सजाना । जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ॥२७॥
जम्बुक सिंह आदि नख धारी । सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥२८॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पति उपजावैं ॥२९॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा । सिंह सिद्धकर राज समाजा ॥३०॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्राण संहारै ॥३१॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ॥३२॥
तैसहि चारि चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा ॥३३॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ॥३४॥
समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी ॥३५॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥३६॥
अद्भुत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ॥३७॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥३८॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ॥३९॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥४०॥
॥ दोहा ॥
पाठ शनिश्चर देव को, की हों भक्त तैयार ।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ॥
॥ इति श्री शनि चालीसा संपूर्णम् ॥