॥ दोहा ॥
जय गिरी तनये दक्षजे, शम्भु प्रिये गुणखानि ।
गणपति जननी पार्वती, अम्बे! शक्ति! भवानि ॥
॥ चौपाई ॥
ब्रह्मा भेद न तुम्हरो पावे । पंच बदन नित तुमको ध्यावे ॥१॥
षड्मुख कहि न सकत यश तेरो । सहसबदन श्रम करत घनेरो ॥२॥
तेऊ पार न पावत माता । स्थित रक्षा लय हित सजाता ॥३॥
अधर प्रवाल सदृश अरुणारे । अति कमनीय नयन कजरारे ॥४॥
ललित ललाट विलेपित केशर । कुंकुंम अक्षत शोभा मनहर ॥५॥
कनक बसन कंचुकी सजाए । कटी मेखला दिव्य लहराए ॥६॥
कण्ठ मदार हार की शोभा । जाहि देखि सहजहि मन लोभा ॥७॥
बालारुण अनन्त छबि धारी । आभूषण की शोभा प्यारी ॥८॥
नाना रत्न जटित सिंहासन । तापर राजति हरि चतुरानन ॥९॥
इन्द्रादिक परिवार पूजित । जग मृग नाग यक्ष रव कूजित ॥१०॥
गिर कैलास निवासिनी जय जय । कोटिक प्रभा विकासिन जय जय ॥११॥
त्रिभुवन सकल कुटुम्ब तिहारी । अणु-अणु महं तुम्हारी उजियारी ॥१२॥
हैं महेश प्राणेश! तुम्हारे । त्रिभुवन के जो नित रखवारे ॥१३॥
उनसो पति तुम प्राप्त कीन्ह जब । सुकृत पुरातन उदित भए तब ॥१४॥
बूढ़ा बैल सवारी जिनकी । महिमा का गावे कोउ तिनकी ॥१५॥
सदा श्मशान बिहारी शंकर । आभूषण हैं भुजंग भयंकर ॥१६॥
कण्ठ हलाहल को छबि छायी । नीलकण्ठ की पदवी पायी ॥१७॥
देव मगन के हित अस कीन्हों । विष लै आपु तिनहि अमि दीन्हों ॥१८॥
ताकी तुम पत्नी छवि धारिणि । दूरित विदारिणी मंगल कारिणि ॥१९॥
देखि परम सौन्दर्य तिहारो । त्रिभुवन चकित बनावन हारो ॥२०॥
भय भीता सो माता गंगा । लज्जा मय है सलिल तरंगा ॥२१॥
सौत समान शम्भु पहआयी । विष्णु पदाब्ज छोड़ि सो धायी ॥२२॥
तेहिकों कमल बदन मुरझायो । लखि सत्वर शिव शीश चढ़ायो ॥२३॥
नित्यानन्द करी बरदायिनी । अभय भक्त कर नित अनपायिनी ॥२४॥
अखिल पाप त्रयताप निकन्दिनि । माहेश्वरी हिमालय नन्दिनि ॥२५॥
काशी पुरी सदा मन भायी । सिद्ध पीठ तेहि आपु बनायी ॥२६॥
भगवती प्रतिदिन भिक्षा दात्री । कृपा प्रमोद सनेह विधात्री ॥२७॥
रिपुक्षय कारिणि जय जय अम्बे । वाचा सिद्ध करि अवलम्बे ॥२८॥
गौरी उमा शंकरी काली । अन्नपूर्णा जग प्रतिपाली ॥२९॥
सब जन की ईश्वरी भगवती । पतिप्राणा परमेश्वरी सती ॥३०॥
तुमने कठिन तपस्या कीनी । नारद सों जब शिक्षा लीनी ॥३१॥
अन्न न नीर न वायु अहारा । अस्थि मात्रतन भयउ तुम्हारा ॥३२॥
पत्र घास को खाद्य न भायउ । उमा नाम तब तुमने पायउ ॥३३॥
तप बिलोकि रिषि सात पधारे । लगे डिगावन डिगी न हारे ॥३४॥
तब तव जय जय जय उच्चारेउ । सप्तरिषि निज गेह सिधारेउ ॥३५॥
सुर विधि विष्णु पास तब आए । वर देने के वचन सुनाए ॥३६॥
मांगे उमा वर पति तुम तिनसों । चाहत जग त्रिभुवन निधि जिनसों ॥३७॥
एवमस्तु कहि ते दोऊ गए । सुफल मनोरथ तुमने लए ॥३८॥
करि विवाह शिव सों हे भामा । पुनः कहाई हर की बामा ॥३९॥
जो पढ़िहै जन यह चालीसा । धन जन सुख देइहै तेहि ईसा ॥४०॥
॥ दोहा ॥
कूट चन्द्रिका सुभग शिर, जयति जयति सुख खानि ।
पार्वती निज भक्त हित, रहहु सदा वरदानि ॥
॥ इति श्री पार्वती चालीसा संपूर्णम् ॥