॥ दोहा ॥
नमो नमो विन्ध्येश्वरी, नमो नमो जगदम्ब ।
सन्तजनों के काज में, करती नहीं विलम्ब ॥
॥ चौपाई ॥
जय जय जय विन्ध्याचल रानी। आदिशक्ति जगविदित भवानी ॥१॥
सिंहवाहिनी जै जगमाता । जै जै जै त्रिभुवन सुखदाता ॥२॥
कष्ट निवारण जै जगदेवी । जै जै सन्त असुर सुर सेवी ॥३॥
महिमा अमित अपार तुम्हारी । शेष सहस मुख वर्णत हारी ॥४॥
दीनन को दु:ख हरत भवानी । नहिं देखो तुम सम कोउ दानी ॥५॥
सब कर मनसा पुरवत माता । महिमा अमित जगत विख्याता ॥६॥
जो जन ध्यान तुम्हारो लावै । सो तुरतहि वांछित फल पावै ॥७॥
तुम्हीं वैष्णवी तुम्हीं रुद्रानी । तुम्हीं शारदा अरु ब्रह्मानी ॥८॥
रमा राधिका श्यामा काली । तुम्हीं मातु सन्तन प्रतिपाली ॥९॥
उमा माध्वी चण्डी ज्वाला । वेगि मोहि पर होहु दयाला ॥१०॥
तुम्हीं हिंगलाज महारानी । तुम्हीं शीतला अरु विज्ञानी ॥११॥
दुर्गा दुर्ग विनाशिनी माता । तुम्हीं लक्ष्मी जग सुख दाता ॥१२॥
तुम्हीं जाह्नवी अरु रुद्रानी । हे मावती अम्ब निर्वानी ॥१३॥
अष्टभुजी वाराहिनि देवा । करत विष्णु शिव जाकर सेवा ॥१४॥
चौंसट्ठी देवी कल्यानी । गौरि मंगला सब गुनखानी ॥१५॥
पाटन मुम्बादन्त कुमारी । भाद्रिकालि सुनि विनय हमारी ॥१६॥
बज्रधारिणी शोक नाशिनी । आयु रक्षिनी विन्ध्यवासिनी ॥१७॥
जया और विजया वैताली । मातु सुगन्धा अरु विकराली ॥१८॥
नाम अनन्त तुम्हारि भवानी । वरनै किमि मानुष अज्ञानी ॥१९॥
जापर कृपा मातु तब होई । जो वह करै चाहे मन जोई ॥२०॥
कृपा करहु मोपर महारानी । सिद्ध करहु अम्बे मम बानी ॥२१॥
जो नर धरै मातु कर ध्याना । ताकर सदा होय कल्याना ॥२२॥
विपति ताहि सपनेहु नाहिं आवै । जो देवीकर जाप करावै ॥२३॥
जो नर कहँ ऋण होय अपारा । सो नर पाठ करै शत बारा ॥२४॥
निश्चय ऋण मोचन होई जाई । जो नर पाठ करै चित लाई ॥२५॥
अस्तुति जो नर पढ़े पढ़अवे । या जग में सो बहु सुख पावे ॥२६॥
जाको व्याधि सतावे भाई । जाप करत सब दूर पराई ॥२७॥
जो नर अति बन्दी महँ होई । बार हजार पाठ करि सोई ॥२८॥
निश्चय बन्दी ते छुट जाई । सत्य वचन मम मानहु भाई ॥२९॥
जापर जो कछु संकट होई । निश्चय देविहिं सुमिरै सोई ॥३०॥
जा कहँ पुत्र होय नहिं भाई । सो नर या विधि करे उपाई ॥३१॥
पाँच वर्ष जो पाठ करावै । नौरातन महँ विप्र जिमावै ॥३२॥
निश्चय होहिं प्रसन्न भवानी । पुत्र देहिं ता कहँ गुणखानी ॥३३॥
ध्वजा नारियल आन चढ़ावै । विधि समेत पूजन करवावै ॥३४॥
नित प्रति पाठ करै मन लाई । प्रेम सहित नहिं आन उपाई ॥३५॥
यह श्री विन्ध्याचल चालीसा । रंक पढ़त होवे अवनीसा ॥३६॥
यह जन अचरज मानहु भाई । कृपा दृश्टि जापर होइ जाई ॥३७॥
जै जै जै जग मातु भवानी । कृपा करहु मोहि निज जन जानी ॥३८॥
॥ इति श्री विन्ध्येश्वरी चालीसा संपूर्णम् ॥