May 19, 2024

श्री रविदास चालीसा | Shri Ravidas Chalisa

॥ दोहा ॥

बंदौं वीणा पाणि को, देहु आय मोहिं ज्ञान ।
पाय बुद्धि रविदास को, करौं चरित्र बखान ॥
मातु की महिमा अमित है, लिखि न सकत है दास ।
ताते आयों शरण में, पुरवहु जन की आस ॥

॥ चौपाई ॥

जय होवै रविदास तुम्हारी । कृपा करहु हरिजन हितकारी ॥१॥
राहू भक्त तुम्हारे ताता । कर्मा नाम तुम्हारी माता ॥२॥
काशी ढिंग माडुर स्थाना । वर्ण अछूत करत गुजराना ॥३॥
द्वादश वर्ष उम्र जब आई । तुम्हरे मन हरि भक्ति समाई ॥४॥

रामानन्द के शिष्य कहाये । पाय ज्ञान निज नाम बढ़ाये ॥५॥
शास्त्र तर्क काशी में कीन्हों । ज्ञानिन को उपदेश है दीन्हों ॥६॥
गंग मातु के भक्त अपारा । कौड़ी दीन्ह उनहिं उपहारा ॥७॥
पंडित जन ताको लै जाई । गंग मातु को दीन्ह चढ़ाई ॥८॥

हाथ पसारि लीन्ह चौगानी । भक्त की महिमा अमित बखानी ॥९॥
चकित भये पंडित काशी के । देखि चरित भव भय नाशी के ॥१०॥
रल जटित कंगन तब दीन्हाँ । रविदास अधिकारी कीन्हाँ ॥११॥
पंडित दीजौ भक्त को मेरे । आदि जन्म के जो हैं चेरे ॥१२॥

पहुँचे पंडित ढिग रविदासा । दै कंगन पुरइ अभिलाषा ॥१३॥
तब रविदास कही यह बाता । दूसर कंगन लावहु ताता ॥१४॥
पंडित जन तब कसम उठाई । दूसर दीन्ह न गंगा माई ॥१५॥
तब रविदास ने वचन उचारे । पडित जन सब भये सुखारे ॥१६॥

जो सर्वदा रहै मन चंगा । तौ घर बसति मातु है गंगा ॥१७॥
हाथ कठौती में तब डारा । दूसर कंगन एक निकारा ॥१८॥
चित संकोचित पंडित कीन्हें । अपने अपने मारग लीन्हें ॥१९॥
तब से प्रचलित एक प्रसंगा । मन चंगा तो कठौती में गंगा ॥२०॥

एक बार फिरि परयो झमेला । मिलि पंडितजन कीन्हों खेला ॥२१॥
सालिग राम गंग उतरावै । सोई प्रबल भक्त कहलावै ॥२२॥
सब जन गये गंग के तीरा । मूरति तैरावन बिच नीरा ॥२३॥
डूब गईं सबकी मझधारा । सबके मन भयो दुःख अपारा ॥२४॥

पत्थर मूर्ति रही उतराई । सुर नर मिलि जयकार मचाई ॥२५॥
रह्यो नाम रविदास तुम्हारा । मच्यो नगर महँ हाहाकारा ॥२६॥
चीरि देह तुम दुग्ध बहायो । जन्म जनेऊ आप दिखाओ ॥२७॥
देखि चकित भये सब नर नारी । विद्वानन सुधि बिसरी सारी ॥२८॥

ज्ञान तर्क कबिरा संग कीन्हों ।  चकित उनहुँ का तुम करि दीन्हों ॥२९॥
गुरु गोरखहि दीन्ह उपदेशा । उन मान्यो तकि संत विशेषा ॥३०॥
सदना पीर तर्क बहु कीन्हाँ । तुम ताको उपदेश है दीन्हाँ ॥३१॥
मन महँ हार्योो सदन कसाई । जो दिल्ली में खबरि सुनाई ॥३२॥

मुस्लिम धर्म की सुनि कुबड़ाई । लोधि सिकन्दर गयो गुस्साई ॥३३॥
अपने गृह तब तुमहिं बुलावा । मुस्लिम होन हेतु समुझावा ॥३४॥
मानी नाहिं तुम उसकी बानी । बंदीगृह काटी है रानी ॥३५॥
कृष्ण दरश पाये रविदासा । सफल भई तुम्हरी सब आशा ॥३६॥

ताले टूटि खुल्यो है कारा । माम सिकन्दर के तुम मारा ॥३७॥
काशी पुर तुम कहँ पहुँचाई । दै प्रभुता अरुमान बड़ाई ॥३८॥
मीरा योगावति गुरु कीन्हों । जिनको क्षत्रिय वंश प्रवीनो ॥३९॥
तिनको दै उपदेश अपारा । कीन्हों भव से तुम निस्तारा ॥४०॥

॥ दोहा ॥

ऐसे ही रविदास ने, कीन्हें चरित अपार ।
कोई कवि गावै कितै, तहूं न पावै पार ॥
नियम सहित हरिजन अगर, ध्यान धरै चालीसा ।
ताकी रक्षा करेंगे, जगतपति जगदीशा ॥

॥ इति श्री रविदास चालीसा संपूर्णम् ॥

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