॥ दोहा ॥
गरुड़ वाहिनी वैष्णवी, त्रिकुटा पर्वत धाम ।
काली, लक्ष्मी, सरस्वती, शक्ति तुम्हें प्रणाम ॥
॥ चौपाई ॥
नमो: नमो: वैष्णो वरदानी । कलि काल मे शुभ कल्याणी ॥१॥
मणि पर्वत पर ज्योति तुम्हारी । पिंडी रूप में हो अवतारी ॥२॥
देवी देवता अंश दियो है । रत्नाकर घर जन्म लियो है ॥३॥
करी तपस्या राम को पाऊँ । त्रेता की शक्ति कहलाऊँ ॥४॥
कहा राम मणि पर्वत जाओ । कलियुग की देवी कहलाओ ॥५॥
विष्णु रूप से कल्की बनकर । लूंगा शक्ति रूप बदलकर ॥६॥
तब तक त्रिकुटा घाटी जाओ । गुफा अंधेरी जाकर पाओ ॥७॥
काली–लक्ष्मी–सरस्वती माँ । करेंगी शोषण-पार्वती माँ ॥८॥
ब्रह्मा, विष्णु, शंकर द्वारे । हनुमत भैरों प्रहरी प्यारे ॥९॥
रिद्धि, सिद्धि चंवर डुलावें । कलियुग-वासी पूजत आवें ॥१०॥
पान सुपारी ध्वजा नारियल । चरणामृत चरणों का निर्मल ॥११॥
दिया फलित वर माँ मुस्काई । करन तपस्या पर्वत आई ॥१२॥
कलि कालकी भड़की ज्वाला । इक दिन अपना रूप निकाला ॥१३॥
कन्या बन नगरोटा आई । योगी भैरों दिया दिखाई ॥१४॥
रूप देख सुन्दर ललचाया । पीछे-पीछे भागा आया ॥१५॥
कन्याओं के साथ मिली माँ । कौल-कंदौली तभी चली माँ ॥१६॥
देवा माई दर्शन दीना । पवन रूप हो गई प्रवीणा ॥१७॥
नवरात्रों में लीला रचाई । भक्त श्रीधर के घर आई ॥१८॥
योगिन को भण्डारा दीना । सबने रूचिकर भोजन कीना ॥१९॥
मांस, मदिरा भैरों मांगी । रूप पवन कर इच्छा त्यागी ॥२०॥
बाण मारकर गंगा निकाली । पर्वत भागी हो मतवाली ॥२१॥
चरण रखे आ एक शिला जब । चरण-पादुका नाम पड़ा तब ॥२२॥
पीछे भैरों था बलकारी । छोटी गुफा में जाय पधारी ॥२३॥
नौ माह तक किया निवासा । चली फोड़कर किया प्रकाशा ॥२४॥
आद्या शक्ति-ब्रह्म कुमारी । कहलाई माँ आद कुंवारी ॥२५॥
गुफा द्वार पहुँची मुस्काई । लांगुर वीर ने आज्ञा पाई ॥२६॥
भागा-भागा भैरों आया । रक्षा हित निज शस्त्र चलाया ॥२७॥
पड़ा शीश जा पर्वत ऊपर । किया क्षमा जा दिया उसे वर ॥२८॥
अपने संग में पुजवाऊंगी । भैरों घाटी बनवाऊंगी ॥२९॥
पहले मेरा दर्शन होगा । पीछे तेरा सुमरन होगा ॥३०॥
बैठ गई माँ पिण्डी होकर । चरणों में बहता जल झर-झर ॥३१॥
चौंसठ योगिनी-भैंरो बरवन । सप्तऋषि आ करते सुमरन ॥३२॥
घंटा ध्वनि पर्वत पर बाजे । गुफा निराली सुन्दर लागे ॥३३॥
भक्त श्रीधर पूजन कीना । भक्ति सेवा का वर लीना ॥३४॥
सेवक ध्यानूं तुमको ध्याया । ध्वजा व चोला आन चढ़ाया ॥३५॥
सिंह सदा दर पहरा देता । पंजा शेर का दु:ख हर लेता ॥३६॥
जम्बू द्वीप महाराज मनाया । सर सोने का छत्र चढ़ाया ॥३७॥
हीरे की मूरत संग प्यारी । जगे अखंड इक जोत तुम्हारी ॥३८॥
आश्विन चैत्र नवराते आऊँ । पिण्डी रानी दर्शन पाऊँ ॥३९॥
सेवक ‘शर्मा’ शरण तिहारी । हरो वैष्णो विपत हमारी ॥४०॥
॥ दोहा ॥
कलियुग में महिमा तेरी,है माँ अपरम्पार।
धर्म की हानि हो रही,प्रगट हो अवतार॥
॥ इति श्री वैष्णो देवी चालीसा संपूर्णम् ॥