November 23, 2024

श्री गोपाल चालीसा | Shri Gopal Chalisa

॥ दोहा ॥

श्री राधापद कमल रज, सिर धरि यमुना कूल ।
वरणो चालीसा सरस, सकल सुमंगल मूल ॥

॥ चौपाई ॥

जय जय पूरण ब्रह्म बिहारी । दुष्ट दलन लीला अवतारी ॥१॥
जो कोई तुम्हरी लीला गावै । बिन श्रम सकल पदारथ पावै ॥२॥
श्री वसुदेव देवकी माता । प्रकट भये संग हलधर भ्राता ॥३॥
मथुरा सों प्रभु गोकुल आये । नन्द भवन में बजत बधाये ॥४॥

जो विष देन पूतना आई । सो मुक्ति दै धाम पठाई ॥५॥
तृणावर्त राक्षस संहार्यौ । पग बढ़ाय सकटासुर मार्यौ ॥६॥
खेल खेल में माटी खाई । मुख में सब जग दियो दिखाई ॥७॥
गोपिन घर घर माखन खायो । जसुमति बाल केलि सुख पायो ॥८॥

ऊखल सों निज अंग बँधाई । यमलार्जुन जड़ योनि छुड़ाई ॥९॥
बका असुर की चोंच विदारी । विकट अघासुर दियो सँहारी ॥१०॥
ब्रह्मा बालक वत्स चुराये । मोहन को मोहन हित आये ॥११॥
बाल वत्स सब बने मुरारी । ब्रह्मा विनय करी तब भारी ॥१२॥

काली नाग नाथि भगवाना । दावानल को कीन्हों पाना ॥१३॥
सखन संग खेलत सुख पायो । श्रीदामा निज कन्ध चढ़ायो ॥१४॥
चीर हरन करि सीख सिखाई । नख पर गिरवर लियो उठाई ॥१५॥
दरश यज्ञ पत्निन को दीन्हों । राधा प्रेम सुधा सुख लीन्हों ॥१६॥

नन्दहिं वरुण लोक सों लाये । ग्वालन को निज लोक दिखाये ॥१७॥
शरद चन्द्र लखि वेणु बजाई । अति सुख दीन्हों रास रचाई ॥१८॥
अजगर सों पितु चरण छुड़ायो । शंखचूड़ को मूड़ गिरायो ॥१९॥
हने अरिष्टा सुर अरु केशी । व्योमासुर मार्यो छल वेषी ॥२०॥

व्याकुल ब्रज तजि मथुरा आये । मारि कंस यदुवंश बसाये ॥२१॥
मात पिता की बन्दि छुड़ाई । सान्दीपनि गृह विद्या पाई ॥२२॥
पुनि पठयौ ब्रज ऊधौ ज्ञानी । प्रेम देखि सुधि सकल भुलानी ॥२३॥
कीन्हीं कुबरी सुन्दर नारी । हरि लाये रुक्मिणि सुकुमारी ॥२४॥

भौमासुर हनि भक्त छुड़ाये । सुरन जीति सुरतरु महि लाये ॥२५॥
दन्तवक्र शिशुपाल संहारे । खग मृग नृग अरु बधिक उधारे ॥२६॥
दीन सुदामा धनपति कीन्हों । पारथ रथ सारथि यश लीन्हों ॥२७॥
गीता ज्ञान सिखावन हारे । अर्जुन मोह मिटावन हारे ॥२८॥

केला भक्त बिदुर घर पायो । युद्ध महाभारत रचवायो ॥२९॥
द्रुपद सुता को चीर बढ़ायो । गर्भ परीक्षित जरत बचायो ॥३०॥
कच्छ मच्छ वाराह अहीशा । बावन कल्की बुद्धि मुनीशा ॥३१॥
ह्वै नृसिंह प्रह्लाद उबार्यो । राम रुप धरि रावण मार्यो ॥३२॥

जय मधु कैटभ दैत्य हनैया । अम्बरीय प्रिय चक्र धरैया ॥३३॥
ब्याध अजामिल दीन्हें तारी । शबरी अरु गणिका सी नारी ॥३४॥
गरुड़ासन गज फन्द निकन्दन । देहु दरश ध्रुव नयनानन्दन ॥३५॥
देहु शुद्ध सन्तन कर सङ्गा । बाढ़ै प्रेम भक्ति रस रङ्गा ॥३६॥

देहु दिव्य वृन्दावन बासा । छूटै मृग तृष्णा जग आशा ॥३७॥
तुम्हरो ध्यान धरत शिव नारद । शुक सनकादिक ब्रह्म विशारद ॥३८॥
जय जय राधारमण कृपाला । हरण सकल संकट भ्रम जाला ॥३९॥
बिनसैं बिघन रोग दुःख भारी । जो सुमरैं जगपति गिरधारी ॥४०॥
जो सत बार पढ़ै चालीसा । देहि सकल बाँछित फल शीशा ॥४१॥

॥ छंद ॥

गोपाल चालीसा पढ़ै नित, नेम सों चित्त लावई ।
सो दिव्य तन धरि अन्त महँ, गोलोक धाम सिधावई ॥
संसार सुख सम्पत्ति सकल, जो भक्तजन सन महँ चहैं ।
‘जयरामदेव’ सदैव सो, गुरुदेव दाया सों लहैं ॥

॥ दोहा ॥

प्रणत पाल अशरण शरण, करुणा-सिन्धु ब्रजेश ।
चालीसा के संग मोहि, अपनावहु प्राणेश ॥

॥ इति श्री गोपाल चालीसा संपूर्णम् ॥

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