॥ दोहा ॥
वन्दो वीरभद्र शरणों शीश नवाओ भ्रात ।
ऊठकर ब्रह्ममुहुर्त शुभ कर लो प्रभात ॥
ज्ञानहीन तनु जान के भजहौंह शिव कुमार ।
ज्ञान ध्यान देही मोही देहु भक्ति सुकुमार ॥
॥ चौपाई ॥
जय-जय शिव नन्दन जय जगवन्दन । जय-जय शिव पार्वती नन्दन ॥१॥
जय पार्वती प्राण दुलारे। जय-जय भक्तन के दु:ख टारे ॥२॥
कमल सदृश्य नयन विशाला । स्वर्ण मुकुट रूद्राक्षमाला ॥३॥
ताम्र तन सुन्दर मुख सोहे । सुर नर मुनि मन छवि लय मोहे ॥४॥
मस्तक तिलक वसन सुनवाले । आओ वीरभद्र कफली वाले ॥५॥
करि भक्तन सँग हास विलासा । पूरन करि सबकी अभिलासा ॥६॥
लखि शक्ति की महिमा भारी । ऐसे वीरभद्र हितकारी ॥७॥
ज्ञान ध्यान से दर्शन दीजै । बोलो शिव वीरभद्र की जै ॥८॥
नाथ अनाथों के वीरभद्रा । डूबत भँवर बचावत शुद्रा ॥९॥
वीरभद्र मम कुमति निवारो । क्षमहु करो अपराध हमारो ॥१०॥
वीरभद्र जब नाम कहावै । आठों सिद्घि दौडती आवै ॥११॥
जय वीरभद्र तप बल सागर । जय गणनाथ त्रिलोग उजागर ॥१२॥
शिवदूत महावीर समाना । हनुमत समबल बुद्घि धामा ॥१३॥
दक्षप्रजापति यज्ञ की ठानी । सदाशिव बिन सफल यज्ञ जानी ॥१४॥
सति निवेदन शिव आज्ञा दीन्ही । यज्ञ सभा सति प्रस्थान कीन्ही ॥१५॥
सबहु देवन भाग यज्ञ राखा । सदाशिव करि दियो अनदेखा ॥१६॥
शिव के भाग यज्ञ नहीं राख्यौ । तत्क्षण सती सशरीर त्यागो ॥१७॥
शिव का क्रोध चरम उपजायो । जटा केश धरा पर मार्यो ॥१८॥
तत्क्षण टँकार उठी दिशाएँ । वीरभद्र रूप रौद्र दिखाएँ ॥१९॥
कृष्ण वर्ण निज तन फैलाए । सदाशिव सँग त्रिलोक हर्षाए ॥२०॥
व्योम समान निज रूप धर लिन्हो । शत्रुपक्ष पर दऊ चरण धर लिन्हो ॥२१॥
रणक्षेत्र में ध्वँस मचायो । आज्ञा शिव की पाने आयो ॥२२॥
सिंह समान गर्जना भारी । त्रिमस्तक सहस्र भुजधारी ॥२३॥
महाकाली प्रकटहु आई । भ्राता वीरभद्र की नाई ॥२४॥
॥ दोहा ॥
आज्ञा ले सदाशिव की चलहुँ यज्ञ की ओर ।
वीरभद्र अरू कालिका टूट पडे चहुँ ओर॥
॥ इति श्री वीरभद्र चालीसा संपूर्णम् ॥