॥ दोहा ॥
श्री गुरु चरण सरोज छवि, निज मन मन्दिर धारि ।
सुमरि गजानन शारदा, गहि आशिष त्रिपुरारि ॥
बुद्धिहीन जन जानिये, अवगुणों का भण्डार ।
बरणों परशुराम सुयश, निज मति के अनुसार ॥
॥ चौपाई ॥
जय प्रभु परशुराम सुख सागर । जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर ॥१॥
भृगुकुल मुकुट विकट रणधीरा । क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा ॥२॥
जमदग्नी सुत रेणुका जाया । तेज प्रताप सकल जग छाया ॥३॥
मास बैसाख सित पच्छ उदारा । तृतीया पुनर्वसु मनुहारा ॥४॥
प्रहर प्रथम निशा शीत न घामा । तिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा ॥५॥
तब ऋषि कुटीर रूदन शिशु कीन्हा । रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा ॥६॥
निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े । मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े ॥७॥
तेज-ज्ञान मिल नर तनु धारा । जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा ॥८॥
धरा राम शिशु पावन नामा । नाम जपत जग लह विश्रामा ॥९॥
भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर । कांधे मुंज जनेऊ मनहर ॥१०॥
मंजु मेखला कटि मृगछाला । रूद्र माला बर वक्ष विशाला ॥११॥
पीत बसन सुन्दर तनु सोहें । कंध तुणीर धनुष मन मोहें ॥१२॥
वेद-पुराण-श्रुति-स्मृति ज्ञाता । क्रोध रूप तुम जग विख्याता ॥१३॥
दायें हाथ श्रीपरशु उठावा । वेद-संहिता बायें सुहावा ॥१४॥
विद्यावान गुण ज्ञान अपारा । शास्त्र-शस्त्र दोउ पर अधिकारा ॥१५॥
भुवन चारिदस अरु नवखंडा । चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा ॥१६॥
एक बार गणपति के संगा । जूझे भृगुकुल कमल पतंगा ॥१७॥
दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा । एक दंत गणपति भयो नामा ॥१८॥
कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला । सहस्त्रबाहु दुर्जन विकराला ॥१९॥
सुरगऊ लखि जमदग्नी पांहीं । रखिहहुं निज घर ठानि मन मांहीं ॥२०॥
मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई । भयो पराजित जगत हंसाई ॥२१॥
तन खल हृदय भई रिस गाढ़ी । रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी ॥२२॥
ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना । तिन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा ॥२३॥
लगत शक्ति जमदग्नी निपाता । मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता ॥२४॥
पितु-बध मातु-रूदन सुनि भारा । भाअति क्रोध मन शोक अपारा ॥२५॥
कर गहि तीक्षण परशु कराला । दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला ॥२६॥
क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा । पितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा ॥२७॥
इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनी । छीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी ॥२८॥
जुग त्रेता कर चरित सुहाई । शिव-धनु भंग कीन्ह रघुराई ॥२९॥
गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना । तब समूल नाश ताहि ठाना ॥३०॥
कर जोरि तब राम रघुराई । बिनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई ॥३१॥
भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता । भये शिष्या द्वापर महँ अनन्ता ॥३२॥
शास्त्र विद्या देह सुयश कमावा । गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा ॥३३॥
चारों युग तव महिमा गाई । सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई ॥३४॥
दे कश्यप सों संपदा भाई । तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई ॥३५॥
अब लौं लीन समाधि नाथा । सकल लोक नावइ नित माथा ॥३६॥
चारों वर्ण एक सम जाना । समदर्शी प्रभु तुम भगवाना ॥३७॥
ललहिं चारि फल शरण तुम्हारी । देव दनुज नर भूप भिखारी ॥३८॥
जो यह पढ़ै श्री परशु चालीसा । तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा ॥३९॥
पृर्णेन्दु निसि बासर स्वामी । बसहु हृदय प्रभु अन्तरयामी ॥४०॥
॥ दोहा ॥
परशुराम को चारू चरित, मेटत सकल अज्ञान ।
शरण पड़े को देत प्रभु, सदा सुयश सम्मान ॥
॥ श्लोक ॥
भृगुदेव कुलं भानुं, सहस्रबाहुर्मर्दनम् ।
रेणुका नयना नंदं, परशुंवन्दे विप्रधनम् ॥
॥ इति श्री परशुराम चालीसा संपूर्णम् ॥